Thursday, December 17, 2015

प्रश्न - अफ्रिका में एक पौधा पाया जाता है जिसे काटने पर वह बच्चे के रोने जेसी ध्वनी अर्थात शब्द करता है | इससे सिद्ध हुआ की वृक्षों में जीव है ?

उत्तर - शब्द जड और चेतन दोनों करते है लेकिन दोनों में यह कार्य अलग अलग व्यवस्था में होता है | प्रथम तो आप लोग वृक्षों में जीव को सुषुप्ति में मानते हो फिर उससे शब्द आदि क्रियाए भी मान रहे हो | तथापि कोई बात नही सरिया को काटने पर ,दीवार को तोड़ने पर भी भिन्न भिन्न शब्द उत्पन्न होते है जो कि उसकी संरचना और उसमे दिए गये आकाश से बनते है जेसे बासुरी में वायु द्वारा छिद्रों से विभिन्न स्वर बनते है | सरिया को आरी से चीरने पर भी अलग सा ध्वनि निकलती है | इसी तरह सजीवो में भी रोने ,चिल्लाने ,हसने बोलने पर विभिन्न ध्वनि निकलती है | सजीवो में ध्वनि अर्थात शब्द निकालने की व्यवस्था का वर्णन मह्रिषी दयानंद द्वारा भाष्य की गयी पाणिनि मुनि की वर्णोंच्चारण शिक्षा में है - " आकाशवायुप्रभव: शरीरात्समुच्चरन वक्त्रमुपेति |
नाद: | स्थानान्तरेषु प्रविभज्यमानो वर्णत्वमागच्छति य: स शब्द: ||१ ||
अर्थात - आकाश और वायु के संयोग से उत्पन्न होने वाला ,नाभि के नीचे से उपर उठता हुआ ,जो मुख को प्राप्त होता है ,उसको नाद कहते है ,वह कंठ आदि स्थानों में विभाग को प्राप्त होता हुआ वर्णभाव को प्राप्त होता है उसे शब्द कहते है |
यहा सजीवो में शब्द कैसे प्रकट होता है उसका वर्णन कर दिया है इस पर परिव्राजकाचार्य महामुनि दयानंद सरस्वती जी लिखते है - " आत्मा बुध्द्या समेत्यर्थान मनो युक्ते विवक्षया |
मन: कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम |
मारुतस्तूरसि चरन्मन्द जनयति स्वरम || 
अर्थात बुद्धि से अर्थो की संगती करके कहने की इच्छा से मन को युक्त करता ,विद्युत्रूप जठराग्नि को ताड़ता ,वह वायु को प्रेरित करता और वायु उर स्थान में विचरित करता हुआ मंद स्वर उत्पन्न करता है |
इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि सजीवो में शब्द करने के लिए आत्मा का जागृत होना आव्श्यक है क्यूंकि उसमे ही बुद्धि को प्रेरित करने की क्षमता होती है जो सुषुप्ति मानने वाले में सम्भव नही यदि अफ्रीका के वृक्ष को जागृत में भी माना जाए तो उपर के सूत्रानुसार सजीवो में शब्द करने के लिए निम्न विभाग नाभि ,मुख ,कंठ और कंठ की स्वर ग्रन्थियो का उलेख है | मैंने अफ्रिका का पौधा देखा तो नही लेकिन क्या कोई उसमे नाभि ,मुख ,कंठ और स्वर ग्रन्थिय दिखा सकता है ? यदि नही तो उसमे निकलने वाली ध्वनि भौतिक एवम रसायनिक कारणों से निकलने वाली मानी जायेगी |

वृक्षों में जीव है या नही ?

इस सन्धर्भ में तर्क वितर्क बहुत चलते है ,हठता के कारण या अन्य कारण से एक दुसरे के तर्को का निषेध होता रहता है | इसलिए अब अनुमान और प्रत्यक्ष को छोड़ शब्द प्रमाण देते है| क्यूंकि आस्तिक वैदिक दर्शन वालो को प्रत्यक्ष ,अनुमान ,शब्द तीनो प्रमाण स्वीकार है | जबकि बोद्धो को प्रत्यक्ष और अनुमान और नास्तिको को केवल प्रत्यक्ष इस दृष्टि से समस्त आस्तिक जनों को इन प्रमाणों पर विचार करना चाहिए |
स्वत प्रमाण वेद से प्रमाण देते है और उसकी व्याख्या आप्त पुरुष ऋषि पेप्लाद और ऋषि ऐतरय महिदास जी के प्रमाणों से करेंगे -
ऋग्वेद १०/१२०/२ में निम्न मन्त्र आया है -
" वावृधान : शवसा भूर्योजा: शत्रुर्दासाय भियस दधाति |
अव्यनच्च व्यनच्च सस्नि स नवन्ते प्रभृता मदेषु इति ||
इस मन्त्र की प्रतीकि दे कर ऐतरय आरंडयक १/३/७ में आया है - 
" अव्यनच्च व्यनच्च सस्नीति यच्च प्राणी यच्चाप्राणकमित्येव तदाह इति " अर्थात वावृधान शवसा ऋग्वेद के इस मन्त्र में व्यनत से प्राणधारण करने वाले और अव्यनत से प्राण न धारण करने वाले दो जगत का ग्रहण होता है इन सबका पोषक सूर्य ही है |
अब ये प्राण धारण करने वाले और न करने वाले कौन है ? इसका भी प्रमाण इसी आरंडयक के १/३/४ में मिलता है -
विशेषेणानिति चेष्टत व्यन्त्प्रानोपत जंगममव्यनत्प्राणरहित स्थावर " अर्थात प्राण धारण करने वाले जंगम जीव विशेष और प्राण रहित स्थावर आदि जड विशेष |
इस तरह मन्त्र की व्याख्या करते हुए ऐतरय ऋषि वृक्षों आदि को प्राण रहित बता रहे है | प्रश्नोंपनिषद में आश्वालायन मुनि का पुत्र कौशल्य ऋषि अपने विद्यार्थी अवस्था में पैप्लाद मुनि से प्रश्न करते है - " कुत एष प्राणों जायते ? " अर्थात शरीर में प्राण किससे उत्पन्न होता है ? -प्रश्न. ३/३० इसका उत्तर पैप्लाद मुनि देते है - " आत्मन: एष: प्राण: जायते " -प्रश्न ३/३२ अर्थात शरीर में प्राण आत्मा से होता है |
इन दोनों प्रमाणों से सिद्ध होता है वृक्ष को प्राण रहित कहा है किसी भी शरीर में प्राण का कारण आत्मा है अत: प्राण रहित वृक्ष में आत्मा का निषेध हो जाता है | 
इसके आलावा ऋषि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश के १३ वे समुल्लास में ८१ वी समीक्षा में वृक्ष जो जड है ऐसा स्पष्ट लिखा है |
छान्दोग्योपनिषद् के अस्य सौम्यमहतो वृक्षस्य इत्यादि भाग पर भाष्य में शंकराचार्य लिखते है - " बौद्धमतेस्थावराश्चेतना ' कणाद तु स्थावरा जड़ा अर्थात बोद्ध मत में स्थावर चेतन है और कणाद के मत में स्थावर जड (इस पर मैंने कल प्रशस्त पाद भाष्य दे कर भी पुष्टि की थी ) है |
आस्तिक होने से सम्भवत: शंकराचार्य जी कणाद से सहमत होंगे |

वृक्षों की सुषुप्ति अवस्था पर प्रश्न

वृक्षो मे जीव वाले वृक्ष को सुषुप्ति मे मानते है ओर उससे भोजन बनाना ,संतान पेदा करना भी मानते है।
यहा पुछना चाहता हू क्या आप लोग यह मानते हो कि कोई बेहोशी मे भोजन बना सकता है ओर संतान भी पैदा कर सकता है? ऐसा दृष्टान्त दे जिसमे बेहोश ने संतान पैदा ओर खाना बनाया हो।
आप लोग कहोगे कि बेहोशी मे यह कार्य नही हो सकते है तो फिर आप लोग सुषुप्ति मे वृक्ष मानकर उससे इन सब कार्यो का उपाय कराकर व्याघात दोष क्यु उत्पन्न कर रहे हो?

छुईमुई (मिमोसा पुडिका) का पौधा छूने पर क्यों मुरझा जाता है?

छूईमुई की पत्तियाँ कई कोशिका की बनी होती है तथा इनमें द्रव पदार्थ भरा रहता है।इस द्रव के दाब से कोशिका की भित्ती दृढ़ रहती है तथा पर्णवृन्त को खड़ा रखने में सहायक होता है। जब इन कोशिकायें द्रव का दाब कम ही जाता है तो पर्णवृन्त तथा पत्तियों की कोशिका को दृढ़ नहीं रख पाटा है जैसे ही कोई व्यक्ति इसकी पत्तियों को छूता है एक संवेदी संवेश पर्णकों तथा पत्तियों के आधार तक पहुँचता है।जिसके परिणाम स्वरूप पत्तियों के निचले भाग की कोशिकाओं में द्रव का दाब गिर जाता है जबकि ऊपरी भाग की कोशिका के दाब में कोई परिवर्तन नहीं होता है, अतः पत्तियाँ मुरझा जाती है।

जगदीश चन्द्रबसु और वृक्ष में आत्मा

वृक्षों में जीव बताने वाले लोगो के पास सबसे प्रबल प्रमाण जगदीश चन्द्रबोस और उनका केस्मोग्राफ यंत्र है | हालकी यह यंत्र शायद ही किसी ने देखा हो फिउर भी पढ़ा सभी ने है | लेकिन जगदीशचन्द्र बोस आर्य समाज के सत्यव्रतसिद्धांतलन्कार जी के मित्र थे जो भारत सरकार में केबिनेट में भी रहे थे एक बार इनसे जगदीश चन्द्र बोस मिले उनसे इन्होने पूछा कि आपने हमे संकट में डाल दिया कि वृक्षों में जीव होता तो लोग मासाहार शाकाहार दोनों नही कर सकते है | इसी बात पर बोस ने उनसे कहा कि वृक्षों में आत्मा नही होता है | ( यह वर्णन मैंने अपने शब्दों में लिखा है यह पूरा वर्णन सत्यव्रतसिद्धांतलन्कार जी की पुस्तक वैदिक विचारधारा का वैज्ञानिक आधार ) में है | एक बार जगदीश चन्द्रबोस को उनकी वृक्ष सम्बन्धी मान्यताओं जिसमे उन्होंने वृक्षों में सम्वेदना आदि बताई थी पर बम्बई के एक पारसी प्रोफेसर दस्तूर ने शास्त्रार्थ की चुनोती दी थी | लेकिन बोस ने यह कह कर टाल दिया कि मै युवाओं से शास्त्रार्थ नही करता हु मेरी ख्याति विश्वप्रसिद्ध है | इससे पता चलता है कि अपने दिए कई नियमो से बहस करने से बोस डरते थे और वृक्षों में आत्मा भी नही मानते थे |

क्या वृक्ष शरीर है ?

कई लोग मनु के प्रमाण से सिद्ध करते है वृक्ष शरीर और योनि है वेसे वहा उस शब्द का अर्थ स्वामी दर्शानंद जी ने लक्षणा से स्थावरस्थ योनि किया है | स्वामी दयानंद सरस्वती जी आर्याविभंव १/७/१२/५ में स्थावर का अर्थ जगत अप्राणित जड किया है | अब कोई हठ करे की वृक्ष पर रहने वाले कीट नही बल्कि वृक्ष ही उसका अर्थ है तो मनु १२/४८ में नक्षत्राणि च दैत्याश्च प्रथमा सात्विक गति : से नक्षत्र भी योनि होती है जो सात्विक गति है बताया है अब क्या नक्षत्र भी योनि है या तो नक्षत्र को योनि माने या फिर नक्षत्रस्थ मानकर वृक्ष की तरह लक्षणा की जाए | और वेसे मनु स्मृति की पुनर्जन्म वाली यह योनि का क्रम भी सही नही है देखिये - " तुरंगान्च शुद्रा ......तामसी गति: (१२/४३ ) अर्थात शुद्र और सूअर तामसी गति है | इससे पूर्व १२/४० में लिखा है - " मनुष्यत्वन्च राजसा " अर्थात मनुष्य रजस योनि है | यहा ध्यान देने वाली बात है क्या शुद्र मनुष्य नही? जब मनुष्य है तो उसे तमस में क्यूँ ? और इसे मानने पर सनातनी ब्राह्मणों का सिद्धांत कि वर्ण का परिवर्तन इस जन्म में नही बल्कि अगले जन्म में होता है मानना पड़ेगा क्यूंकि यहा शुद्र का वर्ण किसी को अगले जन्म में मिला है | अत: यह क्षेपित है इसलिए इसमें ऐसी गडबड है इसलिए यह इस विषय में हमारा स्पष्ट मार्गदर्शन नही कर सकती है | और स्मृति का मुख्य विषय आत्मा ,जीव का दर्शन समझाना भी नही है वह तो उपांगो से ही स्पष्ट होगा | शरीर अर्थात योनि क्या है ? यह न्याय दर्शन में लिखा है - " चेष्टेन्द्रियार्थाश्रय: शरीरम " हित प्राप्ति तथा अहित के परिहाररूप चेष्टा ,इन्द्रिय एवं अर्थ के आधार को शरीर कहते है | अर्थात शरीर में इन्द्रिया है लेकिन वृक्षों को शरीर मानने वाले भी वृक्ष में इन्द्रिय नही मानते है | इससे भी सिद्ध हुआ कि वृक्ष उक्त परिभाषानुसार शरीर नही है |
हमे इसका स्पष्ट उलेख वैशेषिक दर्शन के ऋषि प्रशस्तपाद द्वारा किये हुए भाष्य से मिलता है जिसे ध्यानपूर्वक पढ़े -
" त्रिविध चास्य कार्य शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञकम |
तत्र शरीर द्विविध योनिजमयोनिज च | तत्र योनिजमनपेक्षितशुक्र -शोणितदेवऋषिशरीरधर्मविशेषसहितेभ्योsणुभ्यो जायन्ते ||
क्षुद्रजन्तूना यातनाशरीरान्यधर्मविशेषसहितेभ्योsणूभ्यो जायते |
शुक्रशोणितसन्निपातज योनिज तच्च द्विविधम |
जरायुजमंडजन्च |मानुषपशुमृगाणा जरायुजम |
पक्षिसरीसृपाणाण्डजम |
इन्द्रिय गंधकव्यंजक सर्वप्राणिना जलादयभिभूते: पार्थिवावेरारब्ध घ्राणम |
विषयवस्तु द्वणुकादिप्रक्रमेणरब्धस्त्रीविधो मृत्पाषाणस्थावरलक्षण :| तत्र भूप्रदेश :|
प्राकारेष्टिकादयो मृद्विकारा पाषाण उपलमणिवज्राद्य: स्थावरास्तृणगुल्मौषधितरुलताजाति वनस्पतय इति |"
अर्थ - कार्य जगत तीन प्रकार का है - (१) शरीर अथवा योनि जिसे भोगायतन भी कहते है |(२) इन्द्रीय जिसे भोग साधन कहते है | (३) विषय जिसे भोग कहते है |
शरीर दो प्रकार का होता है - योनिज और अयोनिज अर्थात जो माता पिता के बीज से उत्पन्न हो दुसरा जो बिना माता पिता के बीज से उत्पन्न हो जो गुणविशेषवाले परमाणु से उत्पन्न हो जेसे आदि सृष्टि में ऋषियों का शरीर जो कि सृष्टि के आदि में ईश्वर की व्यवस्था से हुआ | दूसरा योनिज जो माता पिता के रज वीर्य से उत्पन्न हुआ हो यह दो प्रकार का होता है - (१) जरायुज - जो जेर से उत्पन्न हो जेसे मनुष्य ,पशु ,मृग आदि दूसरा अण्डज -जो अन्डो से पैदा हो जेसे मछली ,सर्प पक्षी आदि | अब शरीर का विभाग समाप्त कर इन्द्रियों का लक्षण कहते है पृथ्वी और जल आदि के गुणों गंध और स्वाद आदि का ज्ञान कराने वाली जेसे घ्राण आदि इन्द्रिया है | अब इन्द्रियों को छोड़ विषय अर्थात भोग बताते है ,विषय परमाणु से द्विणु होकर संयोग से तीन प्रकार का बनता है - 
(१) मिटटी (२) पाषाण (३) स्थावर 
प्रथ्वी पर रहने वाली घड़ी हुई ईट,भूमि रूप प्रदेश आदि जितने भी विकार है सब मिटटी ही कहलाते है |
साधारण पाषाण, मणि (जेसे अयस्कांत मणि जिसे चुम्बक भी कहते है ) से लेकर हीरा नीलम आदि पाषाण में गणना है |
और स्थावर अर्थात घास ,बैल ,लता यह सब स्थावर है |
यहा देखिये प्रशस्त पाद मुनि ने स्थावर अर्थात वृक्ष को शरीर नही माना है बल्कि विषय माना है यदि शरीर मानते तो उसकी शरीर में गणना करते ण कि जड विषयों में | अत: वृक्ष शरीर नही विषय है | और शरीर न होने से योनि भी नही है |

वृक्षों में जीव के सन्धर्भ में दिए जाने वाले तर्क की समीक्षा -

तर्क न १ - कुछ मासाहारी पौधे होते है | और मासाहार आदि ग्रहण करना सजीवो का लक्षण है इससे वृक्ष सजीव सिद्ध होते है ?
समीक्षा - अनेको प्रत्यक्ष दृष्टांत से देखा जाता है कि जो जो मासाहारी या निंद्रा लेता है उसकी उस उस पदार्थ में प्रीती होती है | जेसे कोई मॉस खाता है उसकी मॉस में प्रीति ,कोई नींद लेता है उसकी नींद में अर्थात सोने में | लेकिन क्या वृक्षों में भी प्रीति होती है | वृक्षों में प्रीति के सन्धर्भ में मह्रिषी दयानंद जी का निम्न कथन प्राप्त होता है - 
" वृक्ष: कृतस्म (उणादि कोष ३/६६ ) इस पर दयानंद जी लिखते है -" वृक्ष जाति प्रीति हीन होती है | जब वृक्षों में प्रीति नही है तो उनमे मॉस आदि की भी प्रीति नही होगी अर्थात जिन वृक्षों में कीड़े आदि मरते है वो उन वृक्षों की रसायनिक या भौतिकी क्रिया के परिणाम स्वरूप है जेसे अग्नि में जाते ही पतंगे का मरना | न की किसी चेतन तत्व द्वारा | अगर चेतन द्वारा होती तो जेसे अन्य प्राणियों में प्रीति होती है वेसे ही वृक्षों में भी होती |