उत्तर - शब्द जड और चेतन दोनों करते है लेकिन दोनों में यह कार्य अलग अलग व्यवस्था में होता है | प्रथम तो आप लोग वृक्षों में जीव को सुषुप्ति में मानते हो फिर उससे शब्द आदि क्रियाए भी मान रहे हो | तथापि कोई बात नही सरिया को काटने पर ,दीवार को तोड़ने पर भी भिन्न भिन्न शब्द उत्पन्न होते है जो कि उसकी संरचना और उसमे दिए गये आकाश से बनते है जेसे बासुरी में वायु द्वारा छिद्रों से विभिन्न स्वर बनते है | सरिया को आरी से चीरने पर भी अलग सा ध्वनि निकलती है | इसी तरह सजीवो में भी रोने ,चिल्लाने ,हसने बोलने पर विभिन्न ध्वनि निकलती है | सजीवो में ध्वनि अर्थात शब्द निकालने की व्यवस्था का वर्णन मह्रिषी दयानंद द्वारा भाष्य की गयी पाणिनि मुनि की वर्णोंच्चारण शिक्षा में है - " आकाशवायुप्रभव: शरीरात्समुच्चरन वक्त्रमुपेति |
नाद: | स्थानान्तरेषु प्रविभज्यमानो वर्णत्वमागच्छति य: स शब्द: ||१ ||
अर्थात - आकाश और वायु के संयोग से उत्पन्न होने वाला ,नाभि के नीचे से उपर उठता हुआ ,जो मुख को प्राप्त होता है ,उसको नाद कहते है ,वह कंठ आदि स्थानों में विभाग को प्राप्त होता हुआ वर्णभाव को प्राप्त होता है उसे शब्द कहते है |
यहा सजीवो में शब्द कैसे प्रकट होता है उसका वर्णन कर दिया है इस पर परिव्राजकाचार्य महामुनि दयानंद सरस्वती जी लिखते है - " आत्मा बुध्द्या समेत्यर्थान मनो युक्ते विवक्षया |
मन: कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम |
मारुतस्तूरसि चरन्मन्द जनयति स्वरम ||
अर्थात बुद्धि से अर्थो की संगती करके कहने की इच्छा से मन को युक्त करता ,विद्युत्रूप जठराग्नि को ताड़ता ,वह वायु को प्रेरित करता और वायु उर स्थान में विचरित करता हुआ मंद स्वर उत्पन्न करता है |
इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि सजीवो में शब्द करने के लिए आत्मा का जागृत होना आव्श्यक है क्यूंकि उसमे ही बुद्धि को प्रेरित करने की क्षमता होती है जो सुषुप्ति मानने वाले में सम्भव नही यदि अफ्रीका के वृक्ष को जागृत में भी माना जाए तो उपर के सूत्रानुसार सजीवो में शब्द करने के लिए निम्न विभाग नाभि ,मुख ,कंठ और कंठ की स्वर ग्रन्थियो का उलेख है | मैंने अफ्रिका का पौधा देखा तो नही लेकिन क्या कोई उसमे नाभि ,मुख ,कंठ और स्वर ग्रन्थिय दिखा सकता है ? यदि नही तो उसमे निकलने वाली ध्वनि भौतिक एवम रसायनिक कारणों से निकलने वाली मानी जायेगी |
नाद: | स्थानान्तरेषु प्रविभज्यमानो वर्णत्वमागच्छति
अर्थात - आकाश और वायु के संयोग से उत्पन्न होने वाला ,नाभि के नीचे से उपर उठता हुआ ,जो मुख को प्राप्त होता है ,उसको नाद कहते है ,वह कंठ आदि स्थानों में विभाग को प्राप्त होता हुआ वर्णभाव को प्राप्त होता है उसे शब्द कहते है |
यहा सजीवो में शब्द कैसे प्रकट होता है उसका वर्णन कर दिया है इस पर परिव्राजकाचार्य
मन: कायाग्निमाहन्ति
मारुतस्तूरसि चरन्मन्द जनयति स्वरम ||
अर्थात बुद्धि से अर्थो की संगती करके कहने की इच्छा से मन को युक्त करता ,विद्युत्रूप जठराग्नि को ताड़ता ,वह वायु को प्रेरित करता और वायु उर स्थान में विचरित करता हुआ मंद स्वर उत्पन्न करता है |
इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि सजीवो में शब्द करने के लिए आत्मा का जागृत होना आव्श्यक है क्यूंकि उसमे ही बुद्धि को प्रेरित करने की क्षमता होती है जो सुषुप्ति मानने वाले में सम्भव नही यदि अफ्रीका के वृक्ष को जागृत में भी माना जाए तो उपर के सूत्रानुसार सजीवो में शब्द करने के लिए निम्न विभाग नाभि ,मुख ,कंठ और कंठ की स्वर ग्रन्थियो का उलेख है | मैंने अफ्रिका का पौधा देखा तो नही लेकिन क्या कोई उसमे नाभि ,मुख ,कंठ और स्वर ग्रन्थिय दिखा सकता है ? यदि नही तो उसमे निकलने वाली ध्वनि भौतिक एवम रसायनिक कारणों से निकलने वाली मानी जायेगी |